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संसद के दर पर सियासत दारी

भारतीय संसद इस बात का प्रमाण है कि हमारी राजनीतिक व्यवस्था में जनता सबसे ऊपर है, जनमत सर्वोपरि हैं। भारत दुनिया का गुंजायमान, जीवंत और विषालतम लोकतंत्र हैं। यह मात्र राजनीतिक दर्षन ही नहीं है बल्कि जीवन का एक ढंग और आगे बढने के लिए लक्ष्य हैं। भारत का संविधान पूर्ण रूप से कार्यात्मक निर्वाचन पद्धति सुनिश्चित करता है। जो लोगों के द्वारा, लोगों के लिए और लोगों को सरकार की ओर ले जाता हैं।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि राजनीतिक शासन की लोकतांत्रिक प्रक्रिया भारतीय समाज के सामाजिक और आर्थिक पहलुओं तक नहीं पहूॅंच पाई हैं। भारतीय संविधान में निहित सभी के लिए समान अवसरों के प्रावधान होने के बावजूद ये वास्तविक जीवन में धरातलीय नहीं हो पाए। अलबत्ता जाति, धर्म और लिंग के आधार पर भेदभाव अब भी समकालिन भारतीय समाज में मंुह फाडे खडा हैं। इसे जडमूल करने की पहल सदनों को हर हाल में राजनैतिक विचाराधारा से परे रहकर निभानी होगी। अन्यथा भविष्य में इसके वीभत्स परिणाम सारे देश को आह्लादित करेंगें। सदनों में नेताओं की नुराकुष्ति के हालातों से कयास तो यही लगाए जा सकते हैं।
बहरहाल, लोकतंत्र का पहलू यह हैं कि आर्थिक शक्तियां कुछ ही हाथों में संकेन्द्रित न होकर संपूर्ण लोगों के हाथों में निहित हो। आर्थिक लोकतंत्र, धन के समान और न्यायसंगत वितरण और समुदाय के प्रत्येक सदस्य के लिए स्वच्छ जीवन स्तर पर आधारित हैं। लोकतांत्रिक कल्याणकारी राज्य का उद्देश्य जनता का कल्याण करते हुए देष का सर्वागणि विकास और सुरक्षा मुहैया करवाना हैं। इसके निर्वहन की जवाबदेही सदनों को सौंपी गई हैं जिसकी कमान सियासत दारों के हाथ में है कि संसद को राजनितिक दल-दल दंगल बनाते है या जन-जीवन का मंगल ।
यथोचित सदन हमारे आधार स्तम्भ हैं। जो विधानसभा, विधान परिषद और लोकसभा व राज्यसभा के रूप में शान से खडे हैं। ये सदन वह धुरी है, जो देष के शासन की नींव हैं। जहां 130 करोड भारतियों की किस्मत का फैसला होता हैं। बेहतरतीब लोकतंत्र का मंदिर संसद अब राजनितिक महत्वकांक्षा के आगे तार-तार होते जा रहा हैं। अविरल संसद के दर पर सियासत दारी बदस्तुर जारी हैं। यह रूखने का नाम नहीं ले रहा उल्टे सियासतदारों के लिए वोट बैंक की राजनीति का जरिए बन चुके है।
दरअसल, सडक और चुनाव के मैदान में लडी जाने वाली राजनीतिक लडाई सदन में लडी जा रही हैं। लडाई मुद्दों की नहीं, अपितु अहम और वजूद की हैं। प्रतिभूत होती है तो सदन के समय और देष की गाडी कमाई की बर्बादी और कुछ नहीं! जबकि संसद विधायी कार्यो और देष के सामने खडी चुनौतियों, विकास कार्यो, प्रगति और अहम मसलों पर बहस के लिए हैं। पर संसद के अनेकों सत्र सालों से कुछेक उपलब्धियों के साथ हंगामे और राजनैतिक पराकाष्ठा की बलि चढते जा रहे हैं। सदनों की कार्यवाही आगामी दिनों तक के लिए स्थगित होते-होते सत्र र्की इितश्री हो जाती र्हैं। संसद का न चलना एक देष विरोधी अविवेकषील राजनीति का परिचायक हैं। दूसरी ओर संसद में होने वाले गतिरोधों से सरकार के महत्वपूर्ण बिल अटके हुए है।
आखिर इसकी परवाह किसे हैं? हॉं होगी भी क्यों क्योंकि इन हुक्मरानों के लिए राजनीति का एक मतलब हैं विरोध, विरोध और सिर्फ विरोध। इन्हीं की जुबान कहें तो विरोध तो एक बहाना असली मकसद तो सत्ता हथियाना और बचाना हैं। जबकि पक्ष-विपक्ष की नुक्ताचिनी के बजाय संसद के दर को सियासत दारी से परे जन-जन की जिम्मेदारी का द्वार बनाना चाहिए। लिहाजा दुनिया की अद्वितीय संसदीय प्रणाली नीर-क्षीर बनी रहेगी। आच्छादित उम्मीद लगाई जा सकती हैं कि स्वच्छ और सषक्त लोकतंत्र के वास्ते हमारे सियासतदार आगामीे सत्रों में सदन के बहुमुल्य समय को अपनी राजनीति चमकाने के इरादे से बर्बाद नहीं करेंगे।


हेमेन्द्र क्षीरसागर

लेखक व विचारक




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