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अर्जुन सिंह , चन्द्रप्रताप तिवारी और श्रीनिवास सहित विंध्य के सपूतों का जानिये कैसा था इतिहास ....

शोमेश्वर सिंह
स्वर्गीय अर्जुन सिंह कांग्रेस के एक वरिष्ठ, परिपक्व और दूरदर्शी राजनेता थे। समकालीन राजनीति ने उनके साथ न्याय नहीं किया। विरासत में उन्हें पिता शिव बहादुर सिंह से एक कलंकित राजनीति मिली थी। बावजूद इसके भी अपनी प्रतिभा, सूज -बूझ, धैर्य- संयम और साहस के बल पर इतनी ऊंचाइयों तक पहुंचे। कहने को तो उनके पिताजी को रिश्वत के एक मामले में 3साल की सजा हुई थी, जिसे उन्होंने भोगा भी। बाद में जब अर्जुन सिंह मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तब भी उन्हें चुरहट लॉटरी कांड के बहाने घेरा गया। तमाम योग्यताओं के बावजूद भी वे भारत के प्रधानमंत्री अथवा राष्ट्रपति नहीं बन पाये। अर्जुन सिंह से जुड़ी इन दोनों घटनाओं को समझने के लिये आपको इतिहास में पीछे जाना होगा।
तत्कालीन आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक परिस्थितियों में रीवा रियासत और उसके आधीन जमीदारों के बीच के अंतर्विरोध को समझना पड़ेगा। दरअसल पराधीन हिंदुस्तान में कुल 565 रियासतें थी। जिनमें अधिकांश रियासतों ने अंग्रेज सरकार की आधीनता स्वीकार कर लोक सेवा प्रदान करने एवं टैक्स वसूलने का ठेका ले लिया था। केवल 21रियासतों में राज्य प्रमुख की सरकारेंहुआ करती थी। जिसमें रीवा रियासत भी एक है। इसी के अंतर्गत सन 1812 में रीवा रियासत के तत्कालीन महाराजा जय सिंह ने ब्रिटिश सत्ता के साथ समझौता करके अपनी संप्रभुता अंग्रेजों को सौंप दी। रीवा रियासत मध्य भारत में सबसे बड़ी एजेंसी थी।
अंग्रेजों ने रीवा को ब्रिटिश एजेंट की राजधानी बनाया था। किंतु 1933में रीवा एजेंसी को भंग करके इसे इंदौर में शामिल कर दिया गया और तब रीवा रियासत के महाराजा गुलाब सिंह थे। उन्होंने 16वर्ष की उम्र में राज प्रमुख का महाराजा की हैसियत से पदभार संभाला और वे 1918 से 1946 तक राज प्रमुख रहे। यद्यपि महाराजा गुलाब सिंह एक कुशल प्रशासक थे, परंतु अधीनस्थ जमीदारों के साथ उनका व्यवहार ठीक नहीं था। जिससे रुष्ट होकर रीवा रियासत के अनेक अधीनस्थ जमीदारों ने अपना संगठन बना लिया था और प्रायः जमीदारों के संगठन तथा महाराजा के बीच मनमुटाव रहता था। जमीदार संघ के प्रमुख चुरहट राव, शिव बहादुर सिंह थे।
उच्च शिक्षा के लिए रीवा रियासत खासतौर से बघेलखंड का नजदीकी शिक्षा केंद्र इलाहाबाद था, जो हिंदुस्तान की आजादी के आंदोलन का केंद्र बिंदु भी था। इलाहाबाद में पढ़ने वाले बघेलखंड के नौजवान वहां चलने वाले आंदोलन से प्रभावित थे। कांग्रेस पार्टी की विचारधारा से प्रभावित छात्र पंडित जवाहरलाल नेहरू के संपर्क में थे और दूसरी तरफ समाजवादी राम मनोहर लोहिया के संपर्क में थे। नेहरू जी से प्रभावित नौजवान यादवेंद्र सिंह, कप्तान अवधेश प्रताप सिंह, बृजराज सिंह, नर्मदा प्रसाद सिंह हारौल सहित अन्य लोग पंडित नेहरू के सलाह पर बघेलखंड में कांग्रेस यूथ लीग की स्थापना की, जो आगे जाकर 30 मई 1931 को बघेलखंड जिला कांग्रेस कमेटी के रूप में गठित हुई। जिसके अध्यक्ष यादवेंद्र सिंह तथा मंत्री कप्तान अवधेश प्रताप सिंह थे। यूथ लीग ने 11जुलाई 1931 को रीवा राज्य में उत्तरदाई प्रशासन की मांग करते हुये आंदोलन प्रारंभ कर दिया, गिरफ्तारियां हुईं और उन्हें जेल जाना पड़ा।
एक तरफ कांग्रेस द्वारा उत्तरदाई प्रशासन की मांगों को लेकर आंदोलन तथा दूसरी तरफ जमीदार संघ की गतिविधियों से महाराजा नाखुश थे। उन्हें लग रहा था कि कांग्रेस और पंडित नेहरू के इशारे पर उनके खिलाफ इस तरह की कार्यवाही हो रही है। लिहाजा उन्होंने चतुराई के साथ इलाहाबाद में उच्च शिक्षा के लिये अध्ययनरत समाजवादी आंदोलन के प्रणेता डॉ राम मनोहर लोहिया से प्रभावित नौजवानों को आर्थिक मदद देने लगे। जिनमें यमुना प्रसाद शास्त्री, जगदीश जोशी, चंद्र प्रताप तिवारी, श्रीनिवास तिवारी, सहित अन्य समाजवादी नेता थे जो महाराजा गुलाब सिंह द्वारा पोषित होने लगे। किंतु दूसरी तरफ सामंतों, जमीदारों खासतौर से चुरहट राव के खिलाफ आंदोलन करते थे। आंदोलन की मुख्य वजह जमीदारों द्वारा बेरहमी के साथ किसानों से किया जा रहा राजस्व लगान था। क्योंकि चुरहट राव शिव बहादुर सिंह एक महत्वाकांक्षी होशियार तथा स्वाभिमानी जमीदार थे और उन्हें महाराजा रीवा के मुकाबले अपनी शान और शौकत को पूरा करने के लिये धन की जरूरत थी। इस कारण से वे सख्ती के साथ राजस्व लगान की वसूली कराते थे।
महाराजा गुलाब सिंह के ऊपर अनेक गंभीर आपराधिक आरोप थे जिसे देखते हुये उन्हें 17 फरवरी 1942 को राजप्रमुख के पद से हटा दिया गया। उनके सभी अधिकार छीन लिये गये। रीवा रियासत के अधिकार वायसराय को सौंप दिये गये और महाराजा गुलाब सिंह को रीवा राज्य से निष्कासित कर दिया गया। उनके विरुद्ध लगाये गये आरोपों का परीक्षण तत्कालीन इंदौर रेजीडेंसी में किया जाने लगा। महाराजा के प्रति रिमही जनता के मन में काफी आदर था लिहाजा इस कार्यवाही के खिलाफ रीवा में राज्यव्यापी आंदोलन शुरू हो गया। 6 मार्च 1942 को बघेलखंड कांग्रेस कमेटी के पदाधिकारी नर्मदा प्रसाद सिंह हरौल के साथ इलाहाबाद में पंडित जवाहरलाल नेहरू से मिले तथा अंग्रेज सरकार के फैसले के खिलाफ अपना विरोध दर्ज किया। नेहरू जी ने महाराजा गुलाब सिंह के खिलाफ गंभीर आरोपों का हवाला देते हुए आश्वस्त किया कि जांच हो रही है, उनके साथ न्याय होगा। इस कार्यवाही से महाराजा गुलाब सिंह अंग्रेज सरकार तथा कांग्रेस पार्टी दोनों से नाराज थे। सुनवाई उपरांत उन्हें दोषमुक्त किया गया और वह वापस रीवा लौटे।
इस अवधि में अंग्रेज सरकार ने रीवा रियासत का कार्य संचालन तथा उत्तरदायित्व प्रशासन के लिये अपने प्रतिनिधि के रूप में कर्नल सी.सी.एच. स्मिथ को पोलिटिकल एजेंट के रूप में चीफ मिनिस्टर नियुक्त किया था। दूसरी तरफ महाराजा गुलाब सिंह निष्कासन समाप्त होने के उपरांत रीवा वापस लौटते ही 16 अक्टूबर 1945 को दशहरे के दिन समारोह में रीवा राज्य को आजाद करने की सार्वजनिक घोषणा की और कहाकि-" आज से मेरे व मेरे परिवार व मान मर्यादा एवं संपत्ति के रक्षा का भार जनता के ऊपर रहेगा।"
उन्होंने रीवा में लोकप्रिय शासन व्यवस्था की स्थापना के लिये विधान विशेषज्ञ हरिसिंह गौर की अध्यक्षता में सदस्यों की एक कमेटी भी घोषित की। अंग्रेज सरकार ने इसे वायसराय के खिलाफ बगावत माना। क्योंकि तब तक हिंदुस्तान आजाद नहीं हुआ था, किसी तरह की सत्ता का भी हस्तांतरण नहीं हुआ था। महाराजा गुलाब सिंह की इस सार्वजनिक घोषणा से रीवा राज्य में अराजकता पैदा हो सकती थी, लिहाजा पोलिटिकल एजेंट की रिपोर्ट के आधार पर 31 जनवरी 1946 को महाराजा गुलाब सिंह को फिर से राज्य प्रमुख से बर्खास्त करते हुये रीवा राज्य से निष्कासित कर दिया गया।
युवराज मार्तंड सिंह, जो उस समय ऊंटी प्रवास पर थे उन्हें राज प्रमुख नियुक्त कर दिया गया। 5 फरवरी 1946 को युवराज मार्तंड सिंह बतौर महाराजा रीवा वापस लौटे और उन्होंने राज प्रमुख का पदभार ग्रहण किया। चुरहट राव शिव बहादुर सिंह के ज्येष्ठ पुत्र कुंवर रण बहादुर सिंह का विवाह झाबुआ नरेश महाराजा दिलीप सिंह के पुत्री के साथ हुआ। महाराजा गुलाब सिंह के मना करने के बावजूद भी 27जनवरी 1947 को महाराजा मार्तंड सिंह बाराती के रूप में इस विवाह समारोह में शामिल हुये। जिससे महाराजा गुलाब सिंह रावसाहब चुरहट शिव बहादुर सिंह को अपना प्रतिद्वंदी मानने लगे। इन सभी हालातों के बावजूद भी महाराजा गुलाब सिंह कुछ मामलों में काफी प्रगतिशील विचारों के थे। उन्होंने अंग्रेजों के गुलाम हिंदुस्तान में पहली बार "नागरिक सत्ता" की घोषणा। गुलाम भारत में भी हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित करने वाली रीवा पहली रियासत थी।
15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हुआ, पंडित जवाहरलाल नेहरू प्रथम प्रधानमंत्री बने। आजादी के बाद जन भावना को देखते हुये केंद्र के निर्देश पर बघेलखंड तथा बुंदेलखंड की 36 रियासतों को मिलाकर विंध्य प्रदेश का गठन किया गया। सरकारी कामकाज संचालन के लिए एक अंतरिम सरकार मनोनीत की गई। जिसके प्रधानमंत्री कप्तान अवधेश प्रताप सिंह थे और उनके गठित मंत्रिमंडल में राव शिव बहादुर सिंह सहित अन्य लोग भी थे। विंध्य प्रदेश के इस अंतरिम सरकार का कार्यकाल जून 1948 से 14 अप्रैल 1949 तक रहा। राव शिव बहादुर सिंह के पास "इंडस्ट्री एंड लोकल एडमिनिस्ट्रेशन" विभाग था। वह एक प्रभावशाली, योग्य तथा महत्वाकांक्षी मंत्री थे।
संविधान सभा द्वारा भारत के संविधान को लगभग अंतिम अंतिम रूप दिया जा चुका था। कप्तान अवधेश प्रताप सिंह जी विंध्य प्रदेश में अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री के साथ ही संविधान सभा के भी एक सदस्य थे। राव शिव बहादुर सिंह के योग्यता और कार्यकुशलता को देखते हुयेउन्हें कप्तान अवधेश प्रताप सिंह के स्थान पर अंतरिम सरकार का प्रधानमंत्री बनाये जाने की योजना थी। जिसकी भनक कप्तान साहब सहित नर्मदा प्रसाद सिंह हारौल को लग चुकी थी। क्योंकि हारौल साहब पं. नेहरू के करीबी थे। अप्रैल 1949 के प्रथम सप्ताह में ही विंध्य प्रदेश के बड़े कांग्रेस नेता तथा अंतरिम सरकार केमंत्री, प्रधानमंत्री, तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल के बुलावे पर दिल्ली पहुंचे थे और कॉन्स्टिट्यूशन हाउस दिल्ली में रुके थे।
राव शिव बहादुर सिंह के दिल्ली पहुंचने के साथ ही उनकीमहत्वाकांक्षाओं के पर कुतरने की पटकथा लिखी जा चुकी थी, जिसका मंचन 11अप्रैल 1949 को किया गया। जब पन्ना हीरा खदान के एक कंपनी के व्यापारी से 25हजार रिश्वत लेने के आरोप मेंराव शिव बहादुर सिंह को गिरफ्तारगया। और चौथे दिन 14 अप्रैल 1949 को गृहमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल ने विंध्य प्रदेश के अंतरिम सरकार को भंग करके केंद्र शासित प्रदेश घोषित कर दिया तथा लेफ्टिनेंट गवर्नर की नियुक्ति कर दी। राव साहब के खिलाफ स्पेशल कोर्ट में मामला चला और वे 26 जुलाई 1950 को वह दोषमुक्त कर दिये गये। उनके समर्थकों ने अति उत्साह में रीवा में आतिशबाजी की, जिससे राव साहब चुरहट के प्रतिद्वंदी क्रुद्ध हो गये। उन्होंने विंध्य प्रदेश सरकार कि ओर से उस समय की अपीलीय कोर्ट जुडिशल कमिश्नर के न्यायालय में दोषमुक्त के खिलाफ अपील करवा दी। अपीलीय न्यायालय द्वारा 10 मार्च 1951 को अपील स्वीकार कर ली गई। राव साहब को दोषी पाया गया और 3 साल की सजा दी गई। जिसके खिलाफ उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर कर दंडादेश के खिलाफ स्थगन ले लिया।
मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के पहले ही विंध्य प्रदेश विधानसभा के चुनाव की घोषणा हो गई। राव शिव बहादुर सिंह चुरहट विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस प्रत्याशी थे। तत्कालीन व्यंकट बटालियन (एस.ए.एफ.) मैदान रीवा में 6 जून 1952 को प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को एक विशाल चुनावी सभा को संबोधित करना था। मंच में पंडित नेहरू के साथ कप्तान अवधेश प्रताप सिंह तथा पंडित शंभूनाथ शुक्ला मौजूद थे। मंच के नीचे चुरहट विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस प्रत्याशी राव शिव बहादुर सिंह के पास ही दरबार कॉलेज रीवा छात्रसंघ अध्यक्ष अर्जुन सिंह जी पंक्तिबद्ध खड़े थे। मंच पर नेहरू जी के साथ मौजूद कांग्रेस नेताओं ने कानाफूसी की और नेहरु जी ने अपने उद्बोधन में कह दिया कि चुरहट के उम्मीदवार पर रिश्वतखोरी का आरोप है, वह कांग्रेस के अधिकृत प्रत्याशी नहीं हैं। यह सुनकर सभी स्तब्ध रह गये। अंततः राव शिव बहादुर सिंह चुरहट में सोशलिस्ट पार्टी के प्रत्याशी जगत बहादुर सिंह से चुनाव हार गये।
सुप्रीम कोर्ट ने भी मेरिट के आधार पर 22 मई 1953 को उनकी अपील खारिज कर दी। लिहाजा उन्हें शीर्ष न्यायालय के फैसले के बाद सजा भुगतनी पड़ी। इतिहास के इस कटु सत्य को पढ़ना, लिखना, उसका विश्लेषण करना सरल तो है, किंतु उसे महसूस करना उतना ही जटिल जिसे अर्जुन सिंह जी ने छात्र जीवन में महसूस किया था। बतायाजाता है कि पंडित नेहरू जब मंच से नीचे उतरे तो दरबार कालेज छात्र संघ अध्यक्ष कुंवर अर्जुन सिंह का परिचय राव शिव बहादुर सिंह के पुत्र के रूप में कराया गया। यह सुनकर बस नेहरु जी ने आहिस्ता से अर्जुन सिंह के पीठ पर हाथ रखा था। जिन लोगों ने कभी नेहरू जी द्वारा जेल से प्रियदर्शनी इंदिरा को लिखे गये पत्रों का संकलन "पिता के पत्र पुत्री के नाम" पढ़ा होगा वही इस मर्म को समझ पायेंगे।
1952 में विंध्य प्रदेश के प्रथम विधानसभा की 60 सीटों के लिये चुनाव संपन्न हुआ। जिसमें सोशलिस्ट पार्टी के 11, किसान मजदूर प्रजा पार्टी के 3, निर्दलीय 7 तथा 39सदस्य कांग्रेस के जीते। बहुमत के आधार पर कांग्रेस के पंडित शंभूनाथ शुक्ला मुख्यमंत्री बने। कार्यकाल समाप्त होने के पहले मुख्यमंत्री पंडित शंभूनाथ शुक्ला ने विंध्य प्रदेश विधान सभा सदन में पुनर्गठित होने वाले मध्य प्रदेश राज्य में विंध्य प्रदेश के विलय का प्रस्ताव रखा, जिसे बहुमत से मंजूर किया गया। इस प्रकार से विंध्य प्रदेश का मध्य प्रदेश राज्य में विलय हो गया।
1957 में नवगठित मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव के ठीक पहले अर्जुन सिंह चुरहट गढ़ी छोड़ चुके थे और वे सपरिवार जकीरा (साड़ा) शिवराजपुर में निवासरत थे। उन्हें लगभग 150 एकड़ कृषि भूमि दी गई थी। जिसमें से 40एकड़ उन्होंने अन्य कब्जेदार खेतिहर किसानों को बांट दिया। अर्जुन सिंह ने अपनी आत्मकथा "ए ग्रेन ऑफ सैंड इन द अवरग्लास ऑफ टाइम" में अपने बचपन की एक घटना का जिक्र करते हुए बताया है कि वे छुट्टियों में इलाहाबाद से चुरहट आये थे, गढ़ी में ऊपर थे, नीचे एक नीम के पेड़ में किसी खेतिहर मजदूर को उनके पिता के करिंदे लगान वसूली के लिये बेरहमी से पीट रहे थे। जिससे उन्हें जमींदारी प्रथा से वितृष्णा हो गई। आगे उन्होंने एक और घटना का उल्लेख किया है जिसमें उन्हें दयाशंकर मिश्रा के मकान विवाद को लेकर अपने पिता के खिलाफ अदालत में गवाही देना पड़ा और उसी दिन उन्होंने पैतृक गढ़ी का परित्याग कर दिया था। इस संदर्भ में मुझे प्रसिद्ध दार्शनिक कवि खलील जिब्रान द्वारा बच्चों के बारे में लिखी गई इस कविता का स्मरण आता है:-
"आप उन्हें अपना प्यार दे सकते हैं,
पर अपने विचार नहीं,
कारण उनके अपने विचार होते हैं,
आप उनके शरीर की देखभाल कर सकते हैं,
उनकी आत्मा कि नहीं,
क्योंकि उनकी आत्मा आने वाले कल में निवास करती है,
स्वप्न में भी नहीं"
कुं.अर्जुन सिंह अपने पिता राव शिव बहादुर सिंह के साथ हुए राजनैतिक घात-प्रतिघात को देख चुके थे। युवावस्था से ही असामान्य एकाकीपन झेलना पड़ा। मध्य प्रदेश विधान सभा के 1957 में प्रस्तावित आम चुनाव के पूर्व तक वह समाजवादी पार्टी के सदस्य थे। कांग्रेस की वरिष्ठ नेत्री डॉक्टर सुशीला नायर जो महात्मा गांधी की निजी चिकित्सक रह चुकी थीं, जो बाद में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री बनीं, उन्होंने रीवा प्रवास के दौरान राज निवास में अर्जुन सिंह को बुलाया और कांग्रेस पार्टी से चुनाव लड़ने की पेशकश की। परंतु अर्जुन सिंह ने उनसे विनम्रता पूर्वक पिछले पृष्ठभूमि का हवाला देते हुए टिकट लेने से मना कर दिया। वे सीधी जिला के मझौली विधानसभा क्षेत्र से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़े और जीते भी। उनका मानना था कि जिंदगी सुख और दुख का मिश्रण है। शिक्षा का असली अर्थ है कि हम संतुलित व्यक्तित्व का निर्माण कर सकें। जिंदगी को बदली हुई परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं को बिना किसी परेशानी के ढाल सकें।
समय अपने गति से चलता रहा, अर्जुन सिंह जी खुद ब खुद अपना रास्ता बनाते रहे, चलते रहे। उन्होंने पंडित जवाहर लाल नेहरू से कांग्रेस कि सदस्यता ली और कांग्रेस की मुख्य राष्ट्रीय धारा से जुड़ गए। परिणाम स्वरूप 1980 में वे मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। उनके विरुद्ध चुरहट लॉटरी कांड का आरोप लगा हाईकोर्ट ने भी आरोप को पुख्ता कर दिया। जांच के लिये रामलिंगम आयोग का गठन किया गया। अंततः जांच में अर्जुन सिंह जी निर्दोष साबित हुये। विधान सभा में नेता प्रतिपक्ष सुंदरलाल पटवा ने चुरहट लॉटरी कांड को लेकर अर्जुन सिंह पर व्यक्तिगत टिप्पणी की, जिसका आशय था कि "चोर का बेटा चोर ही होता है" तब अर्जुन सिंह ने बड़े ही संयत और सहज लहजे में जवाब दिया- "हमारे यहां पुत्र यह निर्धारण नहीं करता कि उसका पिता कौन होगा ? पटवा जी ने किया हो तो, यह मुझे नहीं मालुम"।
अरसा पहले मैंने अपने पिताजी के संदूक में इलाहाबाद से प्रकाशित अंग्रेजी अखबार लीडर को पढ़ा था, जिसके मुख पृष्ठ में एक समाचार छपा था जिसका हिंदी अनुवाद में शीर्षक था "विंध्य प्रदेश का मंत्री दिल्ली में रिश्वत लेते हुयेगिरफ्तार"। यद्यपि वह अखबार मौजूदा समय में मेरे पास सुरक्षित नहीं रहा, किंतु कुछ अन्य दस्तावेज आज भी है जिसमें वर्ष 1952 के विंध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में चुरहट विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस प्रत्याशी राव शिव बहादुर सिंह द्वारा प्रकाशित कराई गई एक बुकलेट आज भी है। जिसमें उन्होंने दिल्ली के रिश्वत की घटना को राजनैतिक षड्यंत्र बताया था तथा सुप्रीम कोर्ट से दोषमुक्त के लिये आश्वस्त थे। तब मेरे पिताजी जीवित थे और वे राव शिव बहादुर सिंह जब मंत्री थे तब पिताजी उनके निजी स्टाफ में थे। जिस दिन दिल्ली के कांस्टीट्यूशन हाउस में राव साहब को रिश्वत लेते हुए ट्रैप किया गया था उस दिन भी वे दिल्ली में साथ में ही थे।
मेरे पूछने पर पिताजी ने पहली बार मुझे बताया कि जिस दिन राव साहब दिल्ली में रिश्वत लेते पकड़े गये उसके आसपास लगभग 1 सप्ताह से वे दिल्ली प्रवास मे थे। दिन भर आने जाने, मिलने जुलने वालों का तांता लगा रहता था। जिसमें विंध्य प्रदेश के लगभग सभी बड़े कद्दावर कांग्रेसी नेता कप्तान अवधेश प्रताप सिंह, नर्मदा प्रसाद सिंह हारौल, यादवेंद्र सिंह, बृजराज सिंह, कैलाश नाथ काटजू आदि शामिल थे। अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री कप्तान अवधेश प्रताप सिंह के स्थान पर राव शिव बहादुर सिंह को प्रधानमंत्री बनाया जाना लगभग तय था। राजप्रमुख महाराजा मार्तंड सिंह, तत्कालीन पोलिटिकल एजेंट तथा चीफ मिनिस्टर कर्नल स्मिथ अपनी सहमति दे चुके थे। गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल, प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की मुहर लगना बांकी था। विंध्य प्रदेश की धारा सभा के चुनाव तक राव शिव बहादुर सिंह को अंतरिम सरकार का प्रधानमंत्री बनाया जाना प्रस्तावित था। इसी के चलते षड़यंत्र पूर्वक रिश्वत मामले में उन्हें फंसाया गया। पिताजी ने यह भी बताया की घटना के 2 घंटे पहले वे राव साहब के लियेड्राई प्रोटीन और फ्रूट लेने कनॉट प्लेस चले गये थे। उस समय राव साहब के अलावा सिर्फ एक ड्राइवर मौजूद था, स्टाफ व अन्य मिलने वाले लोग जा चुके थे। पिताजी जब वापस लौटे तो राव साहब को ट्रेप किया जा चुका था। जब्ती की भी कार्रवाई हो चुकी थी। नर्मदा प्रसाद सिंह हारौल जमानत ले रहे थे। कप्तान अवधेश प्रताप सिंह भी पहुंच गये थे। जिन लोगों ने राव साहब को फंसाया, वही जमानत कर - करा रहे थे।
पिताजी ने आगे बताया कि दिल्ली की घटना के बाद राव साहब सहित उनका पूरा निजी स्टाफ वापस चुरहट कोठी रीवा लौटा। चुरहट कोठी में सभी दुखी और स्तब्ध थे। माहौल गमगीन था। कोई किसी से बात नहीं कर रहा था। सभी असहज थे। किसी भी व्यक्ति में इतना साहस नहीं था कि वह कोठी के भीतर जाकर रौआइन साहब से सामना कर सके। राव साहब के खिलाफ कांग्रेस के भीतर और बाहर से साजिश का जो ताना-बाना बुना गया था उससे मैं काफी डर गया था। वहां से सुरक्षित पलायन करना ही उचित समझा। रिश्ते के काका के पास अज्ञातवास में बूंदी राजस्थान चला गया और वहां से लगभग डेढ़ साल बाद तब लौटा जब रावसाहब स्पेशल कोर्ट से दोषमुक्त हो गये थे।
मैं बचपन से ही पिताजी के साथ रहा इस कारण से उनसे मेरा मित्रवत संवाद हुआ करता था। मैंने उनसे कहा यदि राव साहब को षडयंत्र पूर्वक झूठा फंसाया गया था तो आपको अदालत में सफाई गवाह होना था। उन्होंने भारी मन से कहा- "देखो जो होता है वह दिखता नहीं और जो दिखता है वह होता नहीं"। आखिर में उन्होंने अपनी एक प्रिय चौपाई सुनाई:-
सुनहु भरत भावी प्रबल,विलख कहें मुनि नाथ।
हानि-लाभ,जीवन-मरण,यश -अपयश विधि हाथ।।
अंततः राव शिव बहादुर सिंह जी का बीमारी की हालत में 10 जनवरी 1962 को चुरहट गढ़ी में दुखद निधन हो गया। वह अपना यश लेकर चले गये, उनका अपयश यही छूट गया। जो अर्जुन सिंह जी का जीवन भर भूत की तरह पीछा करता रहा। उन्होंने इस पर कभी कोई सफाई नहीं दी। क्योंकि देश की शीर्ष अदालत से अपील खारिज हो चुकी थी। कुंवर साहब सेवा भावना से निरंतर राजनीति करते रहे। किन्तु व्यक्तिगत घृणा और निंदा की राजनीति करने वाले तत्व आज भी इतिहास को झुठला रहे हैं। राव साहब को लेकर कितनी मनगढ़ंत कहानियां और मिथक गढ़े गये कि उनकी मृत्यु सजा काटने के दरमियान 1955 में सेंट्रल जेल रीवा में हुई थी। प्रत्येक मनुष्य का अंतस एक कुरुक्षेत्र है, जहां वह जीवन भर युद्धरत रहता है। यह संग्राम अनंत है। व्यक्ति को अपना युद्ध अंतिम सांस तक स्वत: लड़ना पड़ता है। अर्जुन सिंह जी एक अपराजेय योद्धा थे। उन्होंने अपना संग्राम स्वत: लड़ा और जीते भी। वह आज इस दुनियां में नहीं किन्तु स्वर्गीय कुंवर अर्जुन सिंह को समझने के लिये बकौल कबीर दास जी:-
"काहे कै ताना काहे कै भरनी,
पांच तत्व गुण तीनी चदरिया,
सो चादर सुर नर मुनि ओढ़ी,
ओढ़ि के मैली कीनी चदरिया,
दास कबीर जतन करि ओढ़ी,
ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया,
झीनी झीनी बीनी चदरिया।।"

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