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सोनिया को इटली वापस भेजने अर्जुन सिंह से नरसिम्हा राव ने किया था गुप्तगू ....?

सुना फलाने

✍️ शोमेश्वर सिंह ✍️ -------------------------------
सुना फलाने शीर्षक नामक कालम के कलमकार वरिष्ठ पत्रकार और अधिवक्ता शोमेश्वर सिंह ने पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव और पूर्व केन्द्रीय मंत्री स्वर्गीय अर्जुन सिंह के बीच महफूज जगह में हुई गुप्तगू का शोषल मीडिया के मार्फत एक वड़ा खुलासा किया है । आइये देखते हैं ,, शोम ,, के कलम की ओर .....


पिछले दिनों स्वर्गीय श्री अर्जुन सिंह जी के निज सचिव रहे मोहम्मद यूनुस जी ने सोशल मीडिया में एक महत्वपूर्ण खुलासा किया, जिसमें उन्होंने वर्ष 1993 कृष्ण जन्माष्टमी के दिन के घटना को साझा करते हुए बताया कि उस दिन अर्जुन सिंह के दिल्ली स्थित 1 रेस कोर्स रोड के निवास पर भजन संध्या का आयोजन था। भजन गायिका सुश्री शुभा मुद्गल थी। भजन सुनने के लिए देश के हर वर्ग के प्रमुख गणमान्य महानुभाव पहुंचे थे। जिनमें अटल बिहारी बाजपेई तथा तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव भी थे। कार्यक्रम के अंत में राव को छोड़, अटल सहित सभी महानुभाव जा चुके थे। प्रधानमंत्री राव ने अर्जुन सिंह जी से एकांत में बात करने की इच्छा व्यक्त की लान के किनारे निवास भवन के दीवार से सटाकर महफूज जगह में दो कुर्सियां रख दी गई और दोनों लोग पारस्परिक चर्चा करने लगे।
बकौल मोहम्मद यूनुस नरसिंम्हा राव जी अर्जुन सिंह को समझाते हुए कह रहे थे -"अर्जुन सिंह जी सोनिया गांधी पर विश्वास मत करिए वह आपका भला नहीं करने वाली हैं, न ही आपके काबिलियत के साथ न्याय करेंगी। आपने सोनिया गांधी के लिए अपना भविष्य दांव पर लगा दिया है। मेरे बाद आपको ही देश का प्रधानमंत्री और कांगेस पार्टी का अध्यक्ष बनना है, देश को संभालना है। मेरी नजर में इस समय देश में आप सबसे योग्य राजनेता हैं, इसी कारण मैं दिल से आपकी इज्जत करता हूं।"अर्जुन सिंह मौन सुनते रहे कोई जवाब नहीं दिया। नरसिम्हा राव अर्जुन सिंह जी की ही खोज थे। लगभग राजनीति से सन्यास ले चुके थे। लोकसभा के सदस्य तक नहीं थे। बावजूद इसके भी राजीव गांधी की हत्या के बाद प्रधानमंत्री पद के लिए अर्जुन सिंह ने नरसिम्हा राव का नाम प्रस्तावित किया। राव साहब सदन के निर्वाचित सदस्य नहीं थे, प्रधानमंत्री अवश्य थे। इसी कारण से सदन के नेता अर्जुन सिंह थे। राव अमेरिका गए तब भी प्रधानमंत्री का प्रभार अर्जुन सिंह को दे गए थे।
अर्जुन सिंह ने निजी स्वार्थों के लिए कभी आत्मगत राजनीति नहीं की, पद का मोह नहीं पाला, कांग्रेस पार्टी और देश उनके लिए सर्वोपरि था। सही मायने में वह राजनीति में गांधी नेहरू परंपरा के पोषक थे। उन्होंने प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के हाथों कांग्रेस की सदस्यता ली थी। आपातकाल के बाद मध्यप्रदेश में कांग्रेस के अनेक क्षत्रप जब इंदिरा गांधी का साथ छोड़ चुके थे तब भी अर्जुन सिंह इंदिरा गांधी के साथ थे। 1967 में जब कांग्रेस से बगावत करके गोविंद नारायण सिंह संविद सरकार में मुख्यमंत्री बने तब भी अर्जुन सिंह की कांग्रेस पार्टी के प्रति निष्ठा बरकरार रही। नेहरू गांधी परिवार के प्रति इसी समर्पण व निष्ठा के कारण वे 1980 में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने।
अनेक विषम परिस्थितियों में भी उन्होंने समकालीन राजनीतिक चुनौतियों का सामना किया। जिम्मेदारियों से कभी मुंह नहीं मोड़ा। यही वजह थी कि वे राजीव गांधी के भी विश्वसनीय बने रहे। तीन पीढ़ियों की निस्वार्थ राजनीतिक निष्ठा बहुत कम देखने को मिलती है। बोफोर्स मामले को लेकर जब तत्कालीन रक्षा मंत्री वीपी सिंह राजीव गांधी के ऊपर रिश्वतखोरी का व्यक्तिगत आरोप लगा रहे थे। तब तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने अर्जुन सिंह को यह कहते हुए प्रधानमंत्री पद का ऑफर दिया था कि यदि वे राजीव गांधी के खिलाफ बगावत कर दे तो वह उन्हें प्रधानमंत्री की शपथ दिला देंगे। परंतु अर्जुन सिंह ने मना कर दिया और राजीव गांधी के पास जाकर इसकी सूचना दे दी।
एक मर्तबा देश के अग्रणी उद्योगपति धीरूभाई अंबानी भी नरसिम्हा राव का दूत बनकर अर्जुन सिंह के पास सुलह प्रस्ताव लेकर गए थे। नरसिम्हा राव सोनिया गांधी को अपना राजनीतिक प्रतिद्वंदी मानते थे। वे सोनिया जी को वापस इटली भेजने के लिए आमादा थे। राजीव गांधी की निर्मम हत्या के बाद सोनिया गांधी राजनीति से दूर एकांतवास में थी। राजीव गांधी हत्याकांड की जांच कर रहे जैन आयोग ने सरकार को अपनी रिपोर्ट दे दी थी। उस रिपोर्ट को नरसिम्हा राव ने ठंडे बस्ते में डाल दिया था। अर्जुन सिंह जैन आयोग के रिपोर्ट को सदन के पटल पर रखने की मांग कर रहे थे। क्योंकि उस रिपोर्ट में ऐसे महत्वपूर्ण तथ्यों का खुलासा किया गया था जिसकी आंच सीधे नरसिम्हा राव पर आनी थी। क्योंकि तत्कालीन तांत्रिक चंद्रास्वामी की भूमिका राजीव गांधी हत्याकांड में संदिग्ध मानी गई थी। चंद्रास्वामी नरसिम्हा राव के आध्यात्मिक गुरु थे। इसके अलावा भी अनेक सुरक्षा संबंधी खामियां थी।
दुर्भाग्य से 6 दिसंबर 1992 की घटना ने देश के राजनीति की दिशा और दशा बदल दी। उस दिन एक जर्जर और विवादास्पद ढांचा नहीं, भारत के संवैधानिक मूल्यों को ध्वस्त किया गया था। जिसकी रक्षा के लिए अर्जुन सिंह ने अपना पूरा दीर्घकालीन राजनीतिक भविष्य दांव पर लगा दिया। वे कांग्रेस पार्टी, सरकार और सर्वोच्च न्यायालय को सचेत करते रहे। कहते रहे भारतीय जनता पार्टी दो मुखी है ।इसके कथनी और करनी में अंतर है। यह भारत के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को नष्ट करना चाहती है। परंतु उनकी आवाज कांगेस पार्टी और सरकार ने नहीं सुनी। जिसका परिणाम आज सामने है।
उनके राजनीतिक सूझबूझ, सलाह और दूरदृष्टि को यदि कांग्रेस ने माना होता तो आज यह दुर्दशा नहीं होती। इतिहास में कांग्रेस के भीतर सदैव से दक्षिणपंथी , प्रतिक्रियावादी ताकते रही हैं। अनेक हिंदू राष्ट्रवादी कांग्रेस नेता थे। परंतु उनके राष्ट्रभक्ति मे कोई कमी नहीं थी। बस दूरगामी दृष्टि नहीं थी। अर्जुन सिंह के राजनीतिक जीवन में कांग्रेस के बाहर से हमले कम और पार्टी के भीतर से ज्यादा किए गए ।उन्हें एक खलनायक के रूप में स्थापित करने की नापाक कोशिश की गई। उन्हें षड्यंत्रकारी और महत्वाकांक्षी बताया गया। मुझे आज यह लिखने और कहने में किंचित संकोच नहीं है कि कांग्रेस पार्टी ने उनके साथ न्याय नहीं किया और उन्हें वह तवज्जो नहीं दी जिसके की वे हकदार थे। आज इतिहास को झुठला कर उसका पुनर्लेखन किया जा रहा है। समय गतिशील है इतिहास के पहिए को पीछे नहीं घुमाया जा सकता बस उसका पुनर्मूल्यांकन ही किया जा सकता है।

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