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संघर्ष का पर्याय और जीवन के तीन गांव वाले व्यक्तित्व का निधन , अमिट रहेगी कुबरी की पहचान ....

सचीन्द्र मिश्र

इस धरती का एक ऐसा व्यक्तित्व जो इस दुनिया से अलविदा हो चुका हो उनके पास कुछ बैल हल एवं कुछ एकड़ धरती ही होती थी , उन्होंने अधिकतर अभावों का जीवन जिया है, पशुधन की सेवा, अपनी कर्मभूमि के मैदान की ओर बढ़ने से उनके पैर स्वयं-ब-खुद उठ जाता है। उनका स्नान, भोजन और विश्राम आदि जो कुछ भी होता था वह एकान्त वनस्थली में होता था। वह दिन भर कठिन परिश्रम करते स्नान भोजन आदि अक्सर वह खेतों पर ही करते सांझ पर्दे के समय वह बैलों को हांकते हुये घर लौटते और फिर बिआरी के पहले हर रोज अपने मामा जमुनाराम या जगन्नाथ या फिर अपने पारिवारिक अग्रज लोलर भैया या गल्दू भैया की दरवार में गपशप किया करते । अनपढ थे किंतु टूटाफूटा रामायण का ज्ञान था और अक्सर अपने अग्रज लोलर व गल्दू भैया लालमणि दादू के साथ रामायण का पाठ करते गाते बजाते वह युवापन से लेकर करीब सत्तर वर्षां तक अपने ननिहाल कुबरी में रहे । श्रम से इतने परोपकारी एवं मेहनती थे कि वह अपनी स्वार्थ व सुख की तनिक भी चिन्ता नहीं करते। उनका जीवन सख्त-सादा था , शरीर पर धोती, कमीज ,अंगरखा गमछा व अपने मामा की भांति लम्बा कद उनकी आम पहचान थी ।

जी ...हां ....हम बात कर रहे हैं स्वर्गीय बाबा जमुनाराम मिश्र के भांजे श्यामलाल तिवारी का जिनका जन्म आजादी के पहले 1930 के दशक में सेमरिया के समीप पोड़ी में हुआ था जो हाल ही में 15 फरवरी 2023 को पंचतत्व में विलीन हो गये । जन्म से लेकर करीब पचास सालों तक पारिवारिक संघर्ष करने वाले संघर्षशील व्यक्तित्व की कहानी भी मन को झझकोर के रख देती है , आपके पिता रामप्रताप जी के असमायिक निधन के बाद विधवा मां खेल्ली वंहा अकेली पड़ गई चूंकि तिवारी दादा की अवस्था उस समय बाल्यावस्था थी , कतिपय कारणोंवश बाबा स्वर्गीय जमुनाराम ने अपनी बहन खेल्ली और तिवारी दादा को कुबरी ले आये जंहा तिवारी दादा का लालन पालन हो सका । मामा और भांजे का पुत्रवत स्नेह इतना गहराया कि तिवारी दादा यंही के हो गये और समूचे कुबरी में लम्बे समय तक उनका एक अपनापन कायम रहा जो आज भी कायम है ।

कर्ज के बोझ तले दबाब उनका जीवन किसी बंधुआ मजूदर के जीवन से कुछ कम नहीं होता। सच कहता हूं, वह कर्ज में ही पैदा हुये और जिद्दी मेहनत से तैयार की गई कमाई खलिहान तक पहुंचने से पहले साहूकार, जमींदार के हाथों में पहुंच जाती थी ,वह आर्थिक रूप से अतिसंवेदनशील पीड़ा की व्यथा-कथा से जूझते रहे हैं , वक्त वदला जीवन में चार चांद आया जब उनके इकलौते पुत्र अग्रज रमेश तिवारी ने शिक्षादीक्षा पूर्ण कर पीडब्ल्यूडी में एक छोटी सी टाइमकीपर की नौकरी करके पारिवारिक बोझ खुद और खुद सर पर उठा लिया ... हलाकि यह नौकरी वहुत दिनों तक नही चली कारण कि मिनी पीएसी क्वालीफाई होने के वाद आप शिक्षक हो गये । पारिवारिक उत्थान व तिवारी दादा के अधूरे सपनों को साकार करने के लिये बम्हनी ओवरहा में क्रय की गई जमीन जायदाद के कारण करीब दो दशक की बात है कि आप भी अपने ननिहाल बम्हनी ओवरहा में आवाद हो गये जंहा पर आज यह परिवार सर्व सुविधा युक्त फलीभूत हो रहा है , तिवारी दादा भले ही अभावग्रस्त जीवन जीने को मजवूर रहे किंतु उनके नाती पोते आज खुसहाल हैं । अग्रज रमेश तिवारी शिक्षक पद के दायित्व से आज भले मुक्त हो चुके हैं परन्तु वह आज किसी भी सुविधा के लिये मुहताज नही हैं वह आज एक सामान्य आधुनिक किसान की पंक्ति में सुमार हैं , इतना ही नही कुबरी ,बढौरा , बम्हनी , ओवरहा, देवगढ, सेमरिया , झगरहा जैसे अन्य दर्जन भर ग्रामों में अपनी एक अलग पहचान कायम हैं ।


अतीत और वर्तमान दोनों पर मंथन उपरांत संघर्ष के पर्याय रहे तिवारी दादा पर हमें नाज है , पिछले तीन - चार पीढी दर पीढी के रिस्तों पर आज भी खटास नही , वर्तमान पीढी के जो रिस्ते हैं उसकी तुलना में अतीत का मूल्यांकन कंही कम नही .. पूर्वजों व हम सबके बीच भौतिक अभाव भले रहे हों पर सम्बधों में अभाव नही रहे । यही कारण है कि लक्ष्मीराम और रामप्रताप के जमाने के रिस्तों को जमुनाराम बाखूबी निर्वहन किये जो निरंतर आज भी कायम है । तिवारी दादा पंचतत्व में विलीन हो चुके हैं किंतु कुबरी से उनकी आस्था व पहचान हमेशा हमेशा के लिये अमिट रहेगी । कारण की उनका अधिकांश जीवन हम सबके बीच व्यतीत हुआ और आगे की पीढी के लिये यह रिस्ता आवाद रहे , और हम सबके लिये उनका आशिर्वाद फलीभूत हो ।

सादर नमन
🙏

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