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“ आरोग्यं हि मूलं " - डॉ.गीतांजली

ब्लॉग(ईन्यूज एमपी)- स्वास्थ्य हमारे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण आयाम होता है। यह हमारे शारीरिक, मानसिक और सामाजिक तंतु का संतुलन होता है जो हमारे जीवन की गुणवत्ता को प्रभावित करता है।

जीवन सुखमय हो और दर्द, तनाव एवं बीमारियों से मुक्त हो इसके लिये हमें स्वस्थ्य रहना आवश्यक है। इस बार विश्व स्वास्थ्य दिवस पर थीम है " मेरा स्वास्थ्य मेरा अधिकार " ।

यहाँ पर अधिकार से तात्पर्य है कि हमें अपने सामाजिक आर्थिक, नैतिक जीवन के सभी मूल्यों और अधिकारों की रक्षा करने हेतु एक उचित क्षमता और गुणवत्ता का शारीरिक और मानसिक बल आवश्यक है जो कि सम्पूर्ण रूप से स्वस्थ्य रहने पर ही पाया जा सकता है।

अच्छा स्वास्थ्य न केवल हमारा अधिकार है बल्कि यह एक सामाजिक दायित्व भी है। जिसके हनन से सम्पूर्ण जन मानस अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होता है।

स्वास्थ्य का अधिकार इस बात को संदर्भित करता है कि प्रत्येक व्यक्ति जन्म से मृत्यु पर्यन्त एक अच्छे स्वास्थ्य (शारीरिक, मानसिक, सामाजिक आध्यात्मिक) का हक़दार है, और सभी व्यक्तियों के लिए एक सुरक्षित जीवन कि सुलभता जाति, धर्म क्षेत्र, लिंग इन सभी से परे एक मूल परिकल्पना है। प्राचीन कल से ही हमारे ऋषि, मुनियों द्वारा स्वस्थ्य व्यक्ति की स्वास्थ्य कि रक्षा करने एवं रोगी के रोग को दूर करने की अवधारणा के साथ आरोग्य को जीवन के मूल की संज्ञा दी गयी है। इसी संदर्भ में आयुर्वेद के प्रणेता आचार्य चरक ने कहा है कि-

"धर्म, धन, कामना, मुक्ति, आरोग्य, उत्तम मूल।

अर्थात् हमारे हिन्दू धर्म में जो जन्म और मरण के बीच चार पुरुषार्थ चतुष्टयं धर्म , अर्थ, काम और मोक्ष बताये गये है इनका मूल आरोग्य में ही बताया गया है। अर्थात् इन चारो की सिद्धि तभी संभव है जब व्यक्ति शरीर, मन, आत्मा इन सभी से प्रसन्न हो। क्योंकि आरोग्य के अभाव में मनुष्य में वांछित सफलताओं को प्राप्त करने कि क्षमता विकसित नही हो पाती और वह अपने सामाजिक कर्तव्यो एवं अधिकारों से वंचित रह जाता है।

आयुर्वेद के महान आचार्य सुश्रुत ने पूर्ण स्वास्थ्य की परिभाषा बताते हुये कहा है कि- जिस पुरुष के दोष, धातु, मल एवं अग्नि, सम हो अर्थात संतुलित हो तथा जो आत्मा, इंद्रिय मन से प्रसन्न हो वही पूर्ण रूप से स्वास्थ्य कहलाता है।"

आधुनिक समय में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने भी सुश्रुत के मत से सहमत होकर स्वास्थ्य की परिभाषा को कुछ इस तरह से बताया है कि "रोगों की अनुपस्थिति मात्र ही पूर्ण स्वास्थ्य नहीं है बल्कि स्वास्थ्य तो वह स्थिति है जिसमे व्यक्ति शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक और सामाजिक रूप से सुदृढ़ और सक्षम हो।

इस प्रकार महर्षि सुश्रुत और (WHO) ने समग्र स्वास्थ्य के लक्षणों में सभी आयामों को सम्मिलित किया है तथा एकांगिक विकास कि बात न करते हुए व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक, सामाजिक इन सभी आयामो के विकास की बात की है।

आयुर्वेद में स्वस्थ्य रक्षण के लिये स्वस्थ्यवृत्त दिनचर्या, ऋतुचर्या, आहार विहार की समुचित और सुयोजित परिकल्पना आदि के बारे में बताया गया है। इस प्रकार से हमें पूर्णरूपेण स्वस्थ्य रहने के लिये प्राकृतिक क्रम के अनुसार अपने शारीरिक कार्यों के क्रम को व्यवस्थित करना चाहिए। प्रातः काल ब्रह्ममुहूर्त में उठने से लेकर रात्रि के सोने तक किये जाने वाले ऐसे सुव्यवस्थित कर्म जिनमें स्वास्थ्य उन्नत होता है और दीर्घायु की प्राप्ति होती हैं दिनचर्या के अंतर्गत आते हैं।

हमारे शरीर के स्वास्थ्य को खराब करने में हमारे खाने की आदतों का सबसे बड़ा योगदान रहता है। हमारी अव्यस्थित जीवनशैली और शारीरिक निष्क्रियता का सीधे तौर पर गैर संचारी बीमारियों जैसे हाइपरटेंशन, डायबिटीज, कैंसर, महिलाओं मे PCOD, इनफर्टिलिटी, मोटपा आदि से संबंध है। शारीरिक श्रम का कम होना एवं कार्यस्थल पर लगातार कई घंटे तक बैठे रहना मोटापा जोड़ो की तकलीफ (अर्थराइटिस), स्पॉन्डिलाइटिस सर्वाइकल पेन आदि नर्व संबंधी बीमारियों का मुख्य कारण है।

सेहतमंद जीवन जीने के कुछ उपयोगी टिप्स -

1. संतुलित एवं पौष्टिक आहार सेवन ।
2. शारीरिक श्रम ।
3. व्यायाम और योग ।
4. रात्रि में पर्याप्त नींद एवं मोबाईल से दूरी।
5.दिनचर्या, ऋतुचर्या, एवं स्वस्थवृत्त के नियमो का पालन करना ।

लेखक
डॉ.गीतांजली तिवारी
आयर्वेुद मेडिकल ऑफिसर
CHC सेमरिया

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