भोपाल (ईन्यूज एमपी)-यूं तो इस दुनिया में आना और फिर चले जाना तो नियति है, शाश्वत सत्य है, लेकिन फिर भी अखरता है, जब कोई चला जाता है हमारे बीच से। श्रद्धेय बालकवि बैरागी जी का अचानक अपने ही मस्त मौला अंदाज में चले जाना ज्यादा अखर गया। मध्यप्रदेश की राजनीति में वे एक ऐसी शख्सियत थे जिन्होंने अपने हंसीले और चुटिले अंदाज से राजनीति के तनाव उसकी वैमनस्यता को कम किया। कविताओं के नुकीले तीर से वे बड़े-बड़े शिकार करते थे लेकिन उससे किसी को चोट नहीं पहुंचती थी। जैसे उनकी एक कविता है "आज मैंने सूर्य से बस जरा सा यूं कहा, आपके साम्राज्य में इतना अंधेरा क्यों रहा? तमतमाकर वह दहाड़ा- मैं अकेला क्या करूं? तुम निकम्मों के लिए मैं ही भला कब तक मरूं? आकाश की आराधना के चक्करों में मत पड़ो, संग्राम यह घनघोर हैं, कुछ मैं लडूं, कुछ तुम लड़ो।" गहरे अर्थों में समाज और राजनीति की अपेक्षाओं और अकर्मणयताओं दोनों पर कटाक्ष करती है। संघर्षशील व्यक्तित्व के धनी बाल कवि बैरागी पर कभी भी शीर्ष का गौरव, गर्व या अहम सवार नहीं हुआ। उन्होंने अपने बाल्यकाल में बीते कठित संघर्ष और माँ को जीवन पर्यन्त अपने मानस पटल से ओझल नहीं होने दिया। जब आर्थिक रूप से जर्जर अवस्था हो, घर की जिम्मेदारी हो तो प्रतिभाएं दब जाती हैं, लेकिन ऐसा बैरागी जी ने होने नहीं दिया। उन्होंने अपने अंदर जो ज्ञान प्रकाश था उसे बुझने नहीं दिया। कठिन दौर में भी वे शिक्षा को नहीं भूले जो उस उम्र के बच्चे के लिए बेहद आसान था, कि पढ़ना छोड़ दें। ऐसा न करके श्री बैरागी जी समाज और राजनीति दोनों को कृतार्थ किया। क्योंकि अगर ऐसा होता तो आज हमें एक उच्च कोटि का कवि और मूल्यों पर जीने वाला राजनेता अपने बीच नहीं पाते। जब बैरागी राजनीति में थे मेरी अवस्था पलने-बढ़ने की थी लेकिन मेरे पूज्य पिताजी दाउ श्री अर्जुन सिंह जरूर उनके समकालीन थे। जब मैं युवा हुआ तब मैंने बैरागी जी की राजनीति और उनके बहुमुखी व्यक्तित्व को जाना। जब वर्ष 2013 में भाजपा सरकार के खिलाफ जन-चेतना यात्रा निकाली तब बैरागी जी मंदसौर यात्रा में शामिल हुए थे| उनकी मुखर वाक शैली लोगों को जोड़ती थी| वे मध्यप्रदेश के हैं और इतने ऊंचे हैं यह हम सभी के लिए गर्व की बात थी। सामाजिक सरोकारों से गहरे जुड़े होने के कारण कभी उनकी राजनीति और कविता हवाई नहीं रही। वह जीवन पर्यन्त जमीन से जुड़े रहे। उनकी कविता और राजनीति दोनों में समाज की विसंगतियों और उसके आभाव का दर्द था। वे अपने बचपन को नहीं भूले तो उसकी भी छाप उनके जीवन में दिखती थी। वे राजनीति के धर्म को कभी नहीं भूले इसलिए हमेशा उनके लोगों की बात होती थी। वे आम आदमी के कर्तव्य भी जानते थे इसलिए कविता में उनसे भी संवाद था। ऐस व्यक्ति जो समाज, साहित्य और राजनीति में इस कदर घुला मिला हो, जो अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से दोनों का मार्गदर्शन कर रहा हो वह अगर इस तरह यूं ही चला जाए तो अखरता है। विनम्र श्रद्धांजलि